|| द्रोण बनकर न लेले अंगूठा कोई ||
प्रेम तुमसे जताता अनूठा कोई,
सत्य के भेस में हो न झूठा कोई।
दक्षिणा का वचन सोचकर दीजिए,
द्रोण बनकर न लेले अंगूठा कोई।
स्वार्थ की भावनाएँ तो दृढ़ हैं मगर,
मन के रिश्ते यहाँ खोखले हैं सभी l
सिर्फ साँपो के मुख में ही हैं दाँत पर,
सिंह जितने भी हैं पोपले हैं सभी l
हम स्वयं की ही बरछी से आहत हुए,
अन्यथा अन्य हमको न छूता कोई l
सूर्य की वंदना की सभी ने मगर,
दीप का यूँ कभी ऋण है माना नहीं l
गुम्बदों के तो पाहन निहारे गये,
नींव में क्या गड़ा है ये जाना नहीं l
तुलसी पीपल को ज्यों पूजते हैं सभी,
मान पाता नहीं अन्य बूटा कोई l
लाख दीपक यदी साथ भी गर जले,
विश्व का तम मगर कम न कर पाएंगे ।
कुछ घरों मे उजाला भले कर भी दें,
तम स्वयं के तलों का न हर पाएंगे l
आग है गर तो तप के दिवाकर बनो l
विश्व में फिर दिखाए हूठा कोई l
✍🏻 गौरव ‘साक्षी’