ll एक पत्थर ll

एक पत्थर कभी ना हृदय हो सका,
वो पृथक ही रहा, ना विलय हो सका l
कोशिशें तो सभी ने, बहुत की मगर,
उनसे रिश्ता हमारा, न तय हो सका l

रात के प्रेम में हम शशी की तरह,
एकतरफा ही नभ में मचलते रहे।
ना कोई शर्त ना कोई संवाद थे,
संग चलना था सो संग चलते रहे l

रात फिर अपने सूरज, में गुम हो गई,
भाग्य के सूर्य का ना, उदय हो सका l

है प्रथा इक परीणय जो संसार में,
वो प्रथा जो न हम से निभाई गई l
मन कि दीवार पर एक तस्वीर थी,
चाह कर भी नहीं जो हटाई गई l

देहरी देह की, लांघ तो दी मगर,
मन से मन का सफर, ही न तय हो सका l

इक दशक बाद वो कल मिले फिर मुझे,
मिलते ही आँख से आँख बहती रही l
मौन ने उनके अधरों को बांधे रखा,
पर निगाहें व्यथा सारी कहती रही l

प्रेम के द्वार के, पार भी न हुए l
ब्याह का दुर्ग भी, न विजय हो सका l

✍🏻 गौरव ‘साक्षी’